डॉ. नन्द किशोर झा
आचार्य पंकज संताल परगना (झारखण्ड) में हिंदी साहित्य और हिंदी कविता की अलख जगाकर सैकड़ों साहित्यकार पैदा करने वाले उन विरले मनीषी व महान विद्वान साहित्यकारों की उस परम्परा के अग्रणी रहें हैं, जिनकी मिशाल से हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रदीप्त होता रहा है। यूं तो संताल परगना की धरती पर ´पंकज` जी के पहले और उनके बाद भी कई स्वनामधन्य साहित्यकारों ने अपना योगदान दिया है, परन्तु ´पंकज` जी का योगदान इस मायने में इसलिए भी सबसे अलग दिखता है क्योंकि उन्होनें साहित्य-सृजन को एक रचनात्मक आंदोलन में परिवर्तित किया। उन्होंने अपने गुरूजनों और पूर्ववर्ती विभूतियों से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों की विरासत को न सिर्फ संजोया बल्कि उसे संताल परगना के नगर-नगर गांव-गांव में फैलाकर एक नया इतिहास रचा। संताल परगना के प्रायः सभी परवर्ती लेखक, कवि एवं साहित्यकार बड़ी सहजता और कृतज्ञता के साथ ´पंकज` जी के इस ऋण को स्वीकारते है। ´पंकज` जी हिन्दी साहित्य और बंगला साहित्य के उद्भट्ट विद्वान तो थे ही – एक लोकप्रिय शिक्षक भी थे। राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत आचार्य पंकज ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में, हिन्दी विद्यापीठ, देवघर के शिक्षक और शहीद आश्रम छात्रावास, देवघर के अधीक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों के साथ भूमिगत विप्लवी की बड़ी भूमिका निभायी थी। कविता, निबंध, समीक्षा और एकांकी की रचना तथा नाट्याकर्मी की भूमिका को ´पंकज` जी किशोर काल से ही निभाते आ रहे थे, जो आगे चलकर उनकी प्रमुख पहचान बनी। इस तरह कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर समस्त संताल परगना को शिक्षा और साहित्य की लौ से रौशन किया। 1919 में जन्में ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ´पंकज` नामक इस महामना ने 1938 में ही देवघर के हिंदी विद्यापीठ में अथ्यापन का कार्य शुरू कर दिया और अपनी प्रकांड विद्वता के बल पर तत्कालीन हिंदी जगत के धुरंधरों का ध्यान अपनी ओर खींचा। 1042 के भारत छोड़ो आंदोलन की कमान एक शिक्षक की हैसियत से संभाली। 1954 में वे संताल परगना महाविद्यालय, दुमका (उस समय भागलपुर विश्वविद्यालय के अन्तर्गत) के संस्थापक शिक्षक एवं हिन्दी विभाग के प्रथम अध्यक्ष बन गये। 1955 तक आचार्य पंकज की ख्याति संताल परगना की सीमा से निकलकर उत्तर भारत और पूर्वी भारत के विद्वानों और साहित्यकारों तक फैल चुकी थी क्योंकि वे इस बीच तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में ´पंकज` के उपनाम से कविता, समीक्षा और एकांकी लिखते रहे, जिनकी चर्चा होती रही। उनके आभा-मंडल से वशीभूत संताल परगना के साहित्यकारों ने 1955 में ही ´पंकज-गोष्ठी` जैसी ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था का गठन किया जो 1975 तक संताल परगना की साहित्यिक चेतना का पर्याय बनी रही। ´पंकज` जी इस संस्था के सभापति थे। 1958 में उनका प्रथम काव्य-संग्रह ´स्नेह-दीप` के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. बुद्धिनाथ झा ´कैरव` ने लिखी। 1962 में उनका दूसरा कविता-संग्रह ´उद्गार` के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. जनार्दन मिश्र ´परमेश` ने लिखी। 1955 से 1975 तक पंकज-गोष्ठी सम्पूर्ण संताल परगना का अकेला और सबसे बड़ा साहित्यिक आंदोलन था। सच तो यह है कि उस दौर में वहां पंकज-गोष्ठी की मान्यता के बिना कोई साहित्यकार ही नहीं कहलाता था। पंकज-गोष्ठी द्वारा प्रकाशित कविता संकलन का नाम था ´अर्पणा` तथा एकांकी संकलन का नाम था ´वातायन`। लक्ष्मी नारायण ´सुधांशु`, जनार्दन मिश्र झा ´द्विज`, जनार्दन मिश्र ´परमेश´, बुद्धिनाथ झा ´कैरव` के शिष्य एवं समकालीन इस महान विभूति, प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ´पंकज` की विद्वता, रचनाधर्मिता एवं क्रांतिकारिता से तत्कालीन महत्वपूर्ण हिन्दी रचनाकार जैसे – रामधारी सिंह ´दिनकर`, हंस कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन ´पन्त´, जानकी वल्लभ शास्त्री, नलिन विलोचन शर्मा आदि भली-भांति परिचित थे। आत्मप्रचार से कोसो दूर रहने वाले ´पंकज` जी को भले ही आज के हिन्दी जगत ने भुला सा दिया है, परन्तु 58 साल की अल्पायु में ही 1977 में दिवंगत इस आचार्य कवि को मृत्यु के 32 वर्षों के बाद भी संताल परगना के साहित्यकारों ने ही नहीं बल्कि लाखों लोगों ने अपनी स्मृति में आज भी महान विभूति के रूप में जिन्दा रखा है। संताल परगना का ऐसा कोई गांव या शहर नहीं है जहां ´पंकज` जी से संबंधित किम्वदन्तियां न प्रचलित हों। आज आचार्य ´पंकज` की 90वीं जयन्ति के अवसर पर हम सबका – संताल परगना के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों और उनके शिष्यों का यह पुनीत कर्तव्य बनता है कि आचार्य ´पंकज` और उनकी कृत्तियों को बृहत्तर हिन्दी-जगत के समक्ष प्रस्तुत करने में अपने युगधर्म का निर्वाह करें।