पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजी.) :

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हमारा लक्ष्य

हमारा लक्ष्य उस काल के कवियों के मुख्य लक्ष्य को रेखांकित करना है जो एक लंबे अंधकार युग के उपरान्त प्रकाश की ध्वजवाहक वृतियों को प्रसारित करती हैं। आइए आज हम उन सभी आलोकधर्मियों के सृजन के अनेक आयामी गुणों को मुक्ति के आख्यान के सन्दर्भ में भारत को जानने की आधारभूमि के रूप में परखें।

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पंकज-गोष्ठी एक परिचय

हम समाज, सभ्यता, संस्कृति एवं कला के ऊपर एक साझा मंच उपलब्ध कराते हैं...

सौ साल पहले का भारत, भारत ही था, पर वह कई राज्यों में विभाजित था। उसे अपनी राष्ट्रीय पहचान से अलंकृत करने का काम उन बौद्धिकों और स्वतन्त्रता संग्रामियों ने किया था, जो भारत को दासता से मुक्त करने के लिए समूचे देश में सक्रिय थे। वे अपनी राज्यीय परिसीमाओं से बाहर आकर एक वृहत् भारत की राष्ट्रीय संकल्पना के प्रति समर्पित थे और भीतर व बाहर से मुक्ति के लक्ष्य के लिए भी संकल्पबद्ध थे। बौद्धिकों की इस जमात में कवियों की भूमिका निःसंदेह महत्वपूर्ण थी। इसके ऐतिहासिक रेखांकों की आज तटस्थ व्याख्याएं की जा सकती हैं। यह देखना जरूरी होगा कि देश के कोने-कोने में सक्रिय टोलियाँ कभी समानधर्मा वैचारिक उन्मेष से प्रेरित थीं और कभी-कभी वे स्वयं अपने बीच सर्जनात्मक प्रदेय को जन-जन के बीच संप्रेषित करने के लिए सामुदायिक स्तर पर परस्पर सृजनात्मक संवाद का आश्रय लेकर गतिशील थे। संताल परगना जैसे इलाके में कवियों के बीच परस्पर मिल बैठने की जो परंपरा निर्मित हुई थी, उसमें ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ का योग उन अन्य समानधर्मा रचनाशील मण्डलों से ज्यादा महत्वपूर्ण, ज्यादा प्रभावकारी व ज्यादा क्रान्तिकारी इस अर्थ में था कि नये काव्य के सभी इंगित मुक्ति से अभिप्रेरित थे। सौ साल बाद आज हम जब एक अंधेरे अंचल में मुक्ति के आलोक की ऐसी गतिविधि का अध्ययन करते हैं तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि स्वभाषा में साहित्य सृजन की अद्भुत प्रेरणा उससे भी पूर्व गतिमान थी। ‘पंकज-गोष्ठी न्यास’ तत्कालीन बिहार और आधुनिक झारखण्ड के दुमका को केन्द्र बनाकर 1955 से 1975 तक संचालित, उस क्षेत्र के बेहद लोकप्रिय और बहुत बड़े ऐतिहासिक साहित्यिक आंदोलन के संस्थागत स्वरूप ‘पंकज-गोष्ठी’ की विरासत को आगे बढाने वाली संस्था है, जो विगत 14 वर्षों से सीमित संसाधनों के बावजूद, साहित्य-संस्कृति-कला और समाज-सेवा की विभिन्न गतिविधियों को संचालित कर रहा है। ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ के समय की (आज से लगभग 50-60 वर्ष पूर्व) पंकज-गोष्ठी द्वारा सृजित व प्रकाशित विपुल साहित्य के कुछ थोड़ी-सी ही हाथ लगी उपलब्ध सामग्री चकित करती है कि दुमका में ‘पंकज-गोष्ठी’ की नियमित बैठकों में कृतिकार और रसज्ञ श्रोता एकत्र होते थे व अन्य अनेकजन उस गोष्ठी के सदस्य बन सक्रिय भागीदारी में संलग्न थे। उन्हीं दुर्लभ उपलब्ध सामग्रियों के मशीनी-संस्करण का पुनःप्रकाशन करके वृह्त्तर हिन्दी-संसार के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष व संतोष का अनुभव हो रहा है।

व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व

मज्कूर आलम

बालक ज्योतीन्द्र से आचार्य पंकज तक की यात्रा, आंदोलनकारी पंकज की यात्रा, बताती है समय की गति को, सृष्टि के नियम को, उन्हें अपने अनुकूल करने की क्षमता को ! यह यात्रा ...

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डॉ. नन्द किशोर झा

आचार्य पंकज संताल परगना (झारखण्ड) में हिंदी साहित्य और हिंदी कविता की अलख जगाकर सैकड़ों साहित्यकार पैदा करने वाले उन विरले मनीषी व महान विद्वान साहित्यकारों की उस परम्परा के अग्रणी रहें हैं...

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डॉ. विश्वनाथ झा

अभी-अभी 30 जून गुजरा। 30 जून ‘हूल क्रांति’ दिवस है। यह इतिहास का वो दिन है जब संताल परगना के आदिवासियों ने सन् 1855 में भोगनाडीह गांव में सिदो, कान्हू, चांद और भैरव – इन चार भाइयों...

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पंकज-गोष्ठी : साहित्य

स्नेह-दीप, उद्गार और अर्पणा

प्रस्तुत संकलन में आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ के दो पूर्व प्रकाशित काव्य-संग्रह ´स्नेहदीप` (1958) एवं उद्गार (1962) के साथ ही ´पंकज-गोष्ठी` के 10 सदस्यीय-कवियों की कविताओं के संकलन ´अर्पणा` (1961) को एक ही कलेवर में सहेजा गया है।

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धूप का रंग आज काला है

प्रस्तुत पुस्तक "धूप का रंग आज काला है" डॉ. अमर पंकज द्वारा रचित एक गज़ल-संग्रह है। गज़ल-प्रेमियों के लिए अवश्य ही रुचिकर सिद्ध होगी।

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हादसों का सफर - जिन्दगी

आज के दौर की गज़ल, विशेषकर ‘हिन्दी गज़ल’ की जब बात होती है तो एक चर्चित और महत्वपूर्ण नाम उभरकर सामने आता है – डॉ. अमर पंकज। प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं के द्वारा रचित गज़ल संग्रह की दूसरी मणिका है...

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